व्यवसाय को कुटीर उद्योग से जोड़ेंगे साथ ही इनके व्यवसाय को विकसित करने को हर संभव सहयोग करेंगे, बीडीओ अमित कुमार मिश्रा
अशोक कुमार/सिमरिया
सिमरिया देश में लॉकडाउन लगने से लोग आर्थिक मंदी से जूझ रहा है। समाज के सभी वर्गों पर खासा प्रभाव पड़ा है, लोगों के रोजगार खत्म हो रहे हैं। वहीं सिमरिया के आदिमजनजाति और आदिवासी समाज शाल और पलास के पत्तों से दोना-पत्तल और कटोरी बनाकर अपना रोजगार कर रहे हैं। तथा हिंदू धर्म में पूजा पाठ के लिए दोने की बहुत ही अहम योगदान है।भारत में पत्तल बनाने और इस पर भोजन करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। पत्तों में भोजन करने के लिए पत्तल और कटोरी बनाना का प्रचलन पूरे भारत में है। इसके उपयोग में सबसे सुविधाजनक बात तो यह है कि उपयोग के बाद इन्हें फेंका जा सकता है और यह स्वत नष्ट भी हो जाता है। इनसे पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता है। झारखंड में भी दोना-पत्तल का काफी प्रचलन है। धार्मिक रीति-रिवाज के साथ-साथ रोजमर्रा के जिंदगी में भी दोना-पत्तलों का उपयोग यहां खूब होता है। आदिवासी और जनजाति समाज के लोग इस कारोबार से जुड़े हैं।सिमरिया प्रखंड के कई इलाकों में जहां आदिवासी और जनजाति समाज के लोग शाल और पलास के पत्तों से कटोरी और थाली तैयार करते हैं। जिसका उपयोग वे सिर्फ अपने घरेलू कामों में ही नहीं, बल्कि आस-पड़ोस के जिलों में शादी-विवाह के मौके पर आर्डर के अनुसार देते हैं। इसके साथ-साथ नजदीकी बाजारों में दोना-पत्तल बेचते हैं, जिससे उनकी आमदनी भी होती है। इस काम में महिलाएं-पुरूष के साथ-साथ बच्चे भी शामिल होते हैं। खासकर महिलाएं इस काम में ज्यादा लगी है। झारखंड की गोद में प्रकृति की हरियाली, पलाश फूल की लालिमा आसानी से देखने को मिल जाती है। सिमरिया के जंगली क्षेत्रों में पलाश का पेड़ अधीक मात्रा में पाया जाता है। पलाश के पत्तों के लिए यहां के लोगों को ज्यादा भटकना नहीं पड़ता है। स्थानीय लोग हैं कि दोना-पत्तल को वह सिर्फ बेचते ही नहीं हैं, बल्कि अपनी रोजमर्रा के जिंदगी में भी इसको उपयोग करते हैं। वे अपने घरों में खाने-पीने के लिए पलाश के पत्तों का उपयोग करते हैं। इसके उपयोग से वातावरण को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचता है। दोना-पत्तल के कारोबार से जुड़े लोग बताते हैं कि दोना पत्तल की बाजारों में काफी मांग है, लेकिन मेहनत के अपेक्षा से इन्हें उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। बावजूद ये पापी पेट के खातिर दिन रात मेहनत करके दोना पत्तल और कटोरी बनाने में जुटे हुए हैं। ताकि इनके रोजगार का पहिया निरंतर जारी रहें। उनका मानना है कि सरकार उनकी मदद करे तो उनका रोजगार और आगे बढ़ सकता है। कोरोना काल के दौरान आदिवासी और जनजाति समाज के पलाश के पत्तों से दोना-पत्तल, कटोरी, थाली बनाकर अपना रोजगार और आर्थिक स्थिति मजबूत कर रहा है। इसको लेकर प्रखंड विकास पदाधिकारी अमित कुमार मिश्रा ने बताया कि इन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए इस व्यवसाय को कुटीर उद्योग से जोड़ेंगे साथ ही इनके व्यवसाय को विकसित करने को हर संभव सहयोग करने की बात कही। भारत में सदियों से विभिन्न वनस्पतियों के पत्तों से बने पत्तल संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा रहे हैं। ये पत्तल अब भले ही विदेशों में लोकप्रिय हो रहा है, लेकिन भारत में कोई भी सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक उत्सव इनके बिना पूरा नहीं हो सकता है। जरूरत है सरकार को इस ओर ध्यान देने की, ताकि इससे आदिवासी और जनजाति समाज का आर्थिक संवर्धन के साथ-साथ उन्हें रोजगार भी उपलब्ध हो सके।